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प्राचीन वृन्दावन


कहते है कि वर्तमान वृन्दावन असली या प्राचीन वृन्दावन नहीं है । श्रीमद्भागवत<balloon title="श्रीमद्भागवत 10,36" style="color:blue">*</balloon> के वर्णन तथा अन्य उल्लेखों से जान पड़ता है कि प्राचीन वृन्दावन गोवर्धन के निकट था । गोवर्धन-धारण की प्रसिद्ध कथा की स्थली वृन्दावन पारसौली ( परम रासस्थली ) के निकट था । अष्टछाप कवि महाकवि सूरदास इसी ग्राम में दीर्घकाल तक रहे थे । सूरदास जी ने वृन्दावन रज की महिमा के वशीभूत होकर गाया है-हम ना भई वृन्दावन रेणु [1]

ब्रज का हृदय


वृन्दावन का नाम आते ही मन पुलकित हो उठता है । योगेश्वर श्री कृष्ण की मनभावन मूर्ति आँखों के सामने आ जाती है । उनकी दिव्य आलौकिक लीलाओं की कल्पना से ही मन भक्ति और श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है । वृन्दावन को ब्रज का हृदय कहते है जहाँ श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाएँ की हैं । इस पावन भूमि को पृथ्वी का अति उत्तम तथा परम गुप्त भाग कहा गया है । पद्म पुराण में इसे भगवान का साक्षात शरीर, पूर्ण ब्रह्म से सम्पर्क का स्थान तथा सुख का आश्रय बताया गया है । इसी कारण से यह अनादि काल से भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है । चैतन्य महाप्रभु, स्वामी हरिदास, श्री हितहरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य आदि अनेक गोस्वामी भक्तों ने इसके वैभव को सजाने और संसार को अनश्वर सम्पति के रुप में प्रस्तुत करने में जीवन लगाया है । यहाँ आनन्दप्रद युगलकिशोर श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा की अद्भुत नित्य विहार लीला होती रहती है ।



  1. हम ना भई वृन्दावन रेणु, तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु। हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु। सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धेनु॥ सूरदास